भारत का संविधान भारत को “धर्मनिरपेक्ष” राष्ट्र घोषित करता है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य (सरकार) का किसी भी धर्म से कोई आधिकारिक संबंध नहीं होगा और सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान का दृष्टिकोण रखा जाएगा।
संविधान में धर्मनिरपेक्षता का उल्लेख 42वें संविधान संशोधन (1976) के माध्यम से प्रस्तावना (Preamble) में जोड़ा गया, जिसमें भारत को “समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” कहा गया।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ और विशेषताएँ
- धर्म और राज्य का पृथक्करण:
- सरकार का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। राज्य का कार्य सभी धर्मों को समान अधिकार देना है।
- सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार:
- राज्य सभी धर्मों का समान सम्मान करता है और किसी धर्म विशेष को प्राथमिकता नहीं देता।
- निजी आस्था और उपासना की स्वतंत्रता:
- प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, प्रचार करने और उसका पालन करने का अधिकार है।
- धार्मिक भेदभाव का निषेध:
- किसी व्यक्ति को धर्म के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता।
- धर्म और कानून का समन्वय:
- संविधान धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन कानून धर्म से प्रभावित हो सकते हैं (जैसे व्यक्तिगत कानून: हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई विवाह कानून आदि)।
संविधान द्वारा प्रत्याभूत धर्म की स्वतंत्रता के मूल अधिकार
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 के अंतर्गत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। यह अधिकार नागरिकों को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देता है।
1. अनुच्छेद 25: धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
- प्रत्येक व्यक्ति को:
- किसी भी धर्म को मानने (Profess),
- किसी भी धर्म का आचरण करने (Practice), और
- किसी धर्म का प्रचार (Propagate) करने का अधिकार है।
शर्तें:
- यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता के अधीन है।
- सरकार सामाजिक सुधार के लिए धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबंध लगा सकती है (जैसे सती प्रथा का अंत)।
- इस अनुच्छेद के तहत समानता को बढ़ावा देने और अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं को समाप्त करने की अनुमति है।
उदाहरण:
- नागरिकों को मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे आदि में जाने और पूजा करने की स्वतंत्रता है।
2. अनुच्छेद 26: धार्मिक कार्यों की स्वतंत्रता
- प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को:
- धार्मिक कार्यों को संचालित करने,
- धार्मिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन करने,
- संपत्ति अर्जित करने और उसका प्रबंधन करने का अधिकार है।
शर्तें:
- यह अधिकार भी सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता के अधीन है।
उदाहरण:
- मंदिरों या मस्जिदों की देखरेख, प्रबंधन और पूजा-अर्चना की प्रक्रिया का संचालन।
3. अनुच्छेद 27: धर्म प्रचार के लिए कर का निषेध
- किसी भी व्यक्ति को यह बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह किसी धर्म के प्रचार या धार्मिक कार्यों के लिए कर (Tax) का भुगतान करे।
- राज्य किसी धर्म के प्रचार हेतु सरकारी धन का उपयोग नहीं कर सकता।
उदाहरण:
- सरकार मंदिर, मस्जिद या गिरिजाघर के निर्माण हेतु कर के रूप में धन एकत्र नहीं कर सकती।
4. अनुच्छेद 28: धार्मिक शिक्षा का निषेध
- राज्य के पूर्ण नियंत्रण वाले शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
- किसी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना किसी धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
शर्तें:
- राज्य के निजी या अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान धार्मिक शिक्षा दे सकते हैं।
- उदाहरण: मिशनरी स्कूल, मदरसे, और अन्य धर्म-आधारित विद्यालय।
धर्मनिरपेक्षता और भारतीय न्यायपालिका
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या की है और इसे संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का हिस्सा माना है।
- सजियियाओ केस (1974): न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ राज्य और धर्म के बीच पूर्ण अलगाव है।
- एस.आर. बोम्मई केस (1994): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल संरचना है और सरकार किसी धर्म को प्राथमिकता नहीं दे सकती।
निष्कर्ष
भारत की धर्मनिरपेक्षता का आधार सभी धर्मों को समान सम्मान और सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना है। संविधान का अनुच्छेद 25 से 28 नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देते हैं। भारत का धर्मनिरपेक्ष चरित्र सांप्रदायिक सौहार्द और विविधता में एकता का प्रतीक है।
धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित करती है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहे और किसी भी नागरिक को धार्मिक भेदभाव का सामना न करना पड़े।