भारत का संविधान क्षेत्रीयवाद (Regionalism) के मुद्दे को कुछ हद तक संबोधित करता है, लेकिन इसे विशेष महत्व नहीं दिया है। इसका मुख्य कारण है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखना है। भारतीय संविधान में क्षेत्रीय अस्मिता और भौगोलिक विविधताओं का सम्मान करते हुए, यह विशेष रूप से राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विविधता पर अधिक जोर देता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:

1. संविधान का उद्देश्य: राष्ट्रीय एकता और अखंडता

भारत का संविधान संविधान की प्रस्तावना में “संविधान को एक भारतीय राष्ट्र के रूप में निर्मित करना” का वादा करता है। इसके अनुसार, संविधान का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाए रखना है, ताकि भारतीय समाज के विविध समुदायों, धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के बीच एक मजबूत संलयन (integration) हो।

2. क्षेत्रीयता के मुद्दों पर संविधान की संरचना

हालाँकि संविधान में कुछ प्रावधान हैं जो क्षेत्रीय समुदायों और उनके अधिकारों को संबोधित करते हैं, लेकिन क्षेत्रीयवाद को प्राथमिकता नहीं दी गई है। संविधान में संघीय ढांचा (Federal Structure) मौजूद है, जिसमें राज्यों और केन्द्र के बीच शक्ति का वितरण है, लेकिन संविधान का मुख्य ध्यान केंद्र-राज्य संबंधों और राष्ट्रीय एकता पर है।


संविधान में क्षेत्रीय मुद्दों का प्रावधान

  1. संघीय संरचना:
    भारतीय संविधान की संघीय संरचना राज्यों को एक निश्चित स्वायत्तता प्रदान करती है, लेकिन केंद्र का प्रभाव और अधिकार कहीं अधिक है। उदाहरण के लिए, संविधान में केंद्र-राज्य विवादों के समाधान के लिए उपयुक्त प्रावधान (जैसे अनुच्छेद 356) हैं, जो राज्यों की स्वायत्तता को नियंत्रित कर सकते हैं, खासकर जब किसी राज्य में अस्थिरता उत्पन्न होती है।
  2. राज्य पुनर्गठन:
    संविधान में राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया को स्वीकार किया गया है, जिसके तहत 1956 में राज्यों को भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर पुनर्गठित किया गया। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों का निर्माण हुआ, ताकि क्षेत्रीय अस्मिता को सम्मान मिले, लेकिन यह प्रक्रिया केंद्र के नियंत्रण में रही और इसे केंद्र सरकार ने निर्णय लिया।
  3. विशेष राज्य का दर्जा:
    संविधान ने कुछ राज्यों को विशेष दर्जा दिया है, जैसे जम्मू और कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष अधिकार मिले थे (हालांकि यह अनुच्छेद अब समाप्त कर दिया गया है)। इसके अलावा, कुछ राज्यों जैसे नागालैंड और आसाम को भी कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन इन प्रावधानों को सीमित रूप में रखा गया है, ताकि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा की जा सके।
  4. अल्पसंख्यक अधिकार और भाषा:
    संविधान ने भाषाई, सांस्कृतिक, और धार्मिक समुदायों के अधिकारों का ध्यान रखा है, लेकिन इन अधिकारों को हमेशा राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में सीमित किया गया है। उदाहरण के लिए, भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में कई भाषाओं को मान्यता दी गई है, लेकिन यह सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी राज्य या क्षेत्रीय भाषा राष्ट्र की एकता के खिलाफ नहीं जाएगी।

क्षेत्रीयवाद को महत्व न देने के कुछ उदाहरण

  1. केंद्र का प्रभुत्व:
    भारतीय संविधान में केंद्र सरकार को अधिक शक्तियाँ दी गई हैं। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 356 के तहत केंद्र सरकार को किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार है, अगर राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न होता है। यह प्रावधान राज्य की स्वायत्तता को सीमित करता है और केंद्र सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाता है।
  2. राज्य के अधिकारों पर केंद्र का नियंत्रण:
    संविधान की नौवीं अनुसूची और केंद्र-राज्य सूची में यह स्पष्ट है कि राज्य सरकारें केंद्र के निर्णयों के अनुसार चलने के लिए बाध्य हैं। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में केंद्र सरकार को राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार होता है, जैसे कि वित्तीय नियंत्रण या महत्वपूर्ण नीतियों में राज्य सरकारों की भूमिका पर अंकुश लगाना।
  3. भारतीय संघ का उद्देश्य:
    भारतीय संघ का उद्देश्य “राज्य और केंद्र के बीच असंतुलन को बनाए रखना” नहीं है, बल्कि यह है कि भारत को एक मजबूत और एकजुट राष्ट्र के रूप में स्थापित किया जाए। इस तरह, संविधान ने राज्यों के अधिकारों को सीमित किया है और केंद्र सरकार के पक्ष में सत्ता का बड़ा हिस्सा रखा है।

संविधान में क्षेत्रीयवाद को विशेष महत्व नहीं दिया गया है, क्योंकि भारत का संविधान राष्ट्र की एकता और अखंडता को प्राथमिकता देता है। संविधान ने राज्यों को स्वायत्तता तो दी है, लेकिन इसे केंद्र के नियंत्रण और संरक्षण के तहत रखा है। संविधान का उद्देश्य राष्ट्र को एकजुट करना है, न कि क्षेत्रीय अस्मिता को बढ़ावा देना। यह एक संघीय संरचना प्रदान करता है, लेकिन यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी क्षेत्रीय विवाद या अस्मिता राष्ट्रीय एकता के खिलाफ न जाए।

भारतीय संविधान में कुछ ऐसे उपबंध (Provisions) या प्रावधान हैं जिनकी आलोचना यह कहकर की जाती है कि वे जनहित, समानता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के पूर्ण पोषण के लिए पर्याप्त नहीं हैं या जिनमें व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं। इन उपबंधों को आलोचकों द्वारा “पोषक नहीं” (Non-Nurturing) कहा गया है। इन प्रावधानों के कारण कभी-कभी देश के समावेशी विकास और सामाजिक न्याय में अवरोध उत्पन्न होता है।


1. अनुच्छेद 352, 356 और 360: आपातकालीन प्रावधान

  • समस्या: आपातकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरे में डाल सकता है।
    • अनुच्छेद 352: राष्ट्रीय आपातकाल के तहत राष्ट्रपति को विशाल शक्तियाँ मिल जाती हैं, जिससे नागरिक अधिकार सीमित किए जा सकते हैं।
    • अनुच्छेद 356: राष्ट्रपति शासन के माध्यम से केंद्र सरकार राज्य सरकारों को बर्खास्त कर सकती है।
    • अनुच्छेद 360: वित्तीय आपातकाल लागू करने से राज्यों के वित्तीय अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

आलोचना: आपातकाल के प्रावधानों का अतीत में दुरुपयोग देखा गया (जैसे 1975 का आपातकाल)। इससे लोकतंत्र और संघीय ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।


2. अनुच्छेद 19(2): अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध

  • समस्या: अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) इसके ऊपर “उचित प्रतिबंध” लगाता है।
    • उचित प्रतिबंध के कारण राज्य को “सार्वजनिक व्यवस्था”, “राज्य की सुरक्षा”, “अश्लीलता” आदि जैसे कारणों से अभिव्यक्ति को सीमित करने की शक्ति मिलती है।

आलोचना:

  • कभी-कभी असहमति की आवाज दबाने और सरकार की आलोचना को रोकने के लिए इन प्रावधानों का दुरुपयोग किया जाता है।
  • यह लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों की स्वतंत्रता को कमजोर करता है।

3. अनुच्छेद 22: निवारक निरोध (Preventive Detention)

  • समस्या: यह अनुच्छेद राज्य को किसी व्यक्ति को बिना मुकदमे के हिरासत में रखने की अनुमति देता है।
    • निवारक निरोध को 3 महीने तक बढ़ाया जा सकता है और इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रभावित होती है।

आलोचना:

  • यह प्रावधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) का हनन करता है।
  • इसका दुरुपयोग राजनीतिक विरोधियों और निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ किया जा सकता है।

4. अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण

  • समस्या: संविधान के अंतर्गत अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
    • आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना था।
    • लेकिन कई आलोचक इसे योग्यता आधारित अवसरों के खिलाफ मानते हैं।

आलोचना:

  • आरक्षण का दुरुपयोग और राजनीतिकरण बढ़ता गया है।
  • कई वर्गों को अब भी इसका लाभ नहीं मिला है, जबकि कुछ वर्गों को बार-बार लाभ मिल रहा है।
  • योग्यता और प्रतिस्पर्धा प्रभावित होती है।

5. अनुच्छेद 243- राज्य वित्त और पंचायतों की स्वायत्तता

  • समस्या: पंचायतों और नगरीय निकायों को संविधान के तहत मान्यता मिली है, लेकिन वित्तीय अधिकार और शक्तियाँ केंद्र और राज्य सरकारों के पास ही सीमित रहती हैं।

आलोचना:

  • स्थानीय सरकारों की आर्थिक स्वायत्तता नहीं है।
  • विकास कार्यों और योजनाओं के लिए वे राज्यों पर निर्भर रहती हैं।

6. धर्म आधारित प्रावधानों का अस्तित्व

  • समस्या: संविधान में धर्मनिरपेक्षता को मान्यता दी गई है, लेकिन व्यक्तिगत कानून जैसे हिन्दू विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि के कारण धर्म आधारित विभाजन बना हुआ है।

आलोचना:

  • समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC) की अनुपस्थिति से समाज में विधिक असमानता बनी हुई है।
  • धर्म आधारित प्रावधान समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) का उल्लंघन करते हैं।

7. अल्पसंख्यक अधिकार और अनुच्छेद 30

  • समस्या: अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान स्थापित करने और प्रबंधित करने का अधिकार है।

आलोचना:

  • कई बार यह तर्क दिया जाता है कि बहुसंख्यकों (जैसे हिंदू समुदाय) के साथ इस संदर्भ में भेदभाव होता है।
  • इससे अल्पसंख्यकों के नाम पर अलगाववाद और असंतोष पैदा हो सकता है।

8. विशेष प्रावधान: अनुच्छेद 370 और 35A

  • (हालांकि अनुच्छेद 370 अब समाप्त कर दिया गया है।)
    • पहले जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था, जिससे संविधान के अन्य प्रावधान वहाँ लागू नहीं होते थे।

आलोचना:

  • इसने राज्य को अन्य राज्यों से अलग-थलग किया।
  • यह राष्ट्र की एकता और अखंडता के सिद्धांतों के खिलाफ था।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान व्यापक और समावेशी है, लेकिन इसमें कुछ प्रावधान ऐसे हैं जो व्यावहारिक चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं। जैसे आपातकालीन प्रावधान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, निवारक निरोध, आरक्षण, और वित्तीय स्वायत्तता की कमी

इन प्रावधानों की आलोचना इसलिए की जाती है क्योंकि वे कभी-कभी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोकतंत्र, और समानता जैसे मौलिक सिद्धांतों के विपरीत प्रभाव डालते हैं। इन मुद्दों का समाधान संविधान में समय-समय पर संशोधन और न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से किया जाता रहा है।

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